परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के लिए चुनी गई यह जमीन पर्यावरण के लिहाल से अति संवेदनशील है। समुद्र का किनारा, 150 किस्म के पक्षियों का घर, 300 किस्म की वनस्पतियां। खास बात यह है कि इनमें कई वनस्पतियों और पक्षियों की किस्म दुर्लभ है। समुन्द्र के इस मनोरम तटिय क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक परमाणु ऊर्जा संबंधित प्रकल्प प्रस्तावित हैं। जबकि रत्नागिरी को राज्य सरकार ने ओद्यानिकी (हॉर्टिकल्चर) जिला घोषित किया है और इसका पड़ोसी जिला सिंधदुर्ग गोवा से भी लगा हुआ होने के कारण पर्यटकों की खास पसंद रहा है। बड़ी संख्या में गोवा देखने के लिए आने वाले पर्यटक सिधदुर्ग का रुख करते हैं। पर्यावरणविद इस बात से अचंभित है कि जिस रत्नागिरी को दुनिया भर मे जैव विविधता के हॉट स्पॉट के तौर पर देखा जाता है, उस जिले के लिए परमाणु ऊर्जा संबंधित परियोजना के करार पर उस साल हस्ताक्षर होता है, जब पूरी दुनिया ‘अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष’ का उत्सव मना रही है। 2010 को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष के रुप में मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने बर्लिन में की।साखरी नाटे मछुआरों की बस्ती है। वहां मिले मच्छीमार कृति समिति के उपाध्यक्ष, अमजद बोरकर। वे और उनके साथी समुन्द्र को लेकर अपने रागात्मक रिश्तों की बात करते-करते भावुक हो गए। बकौल बोरकर- ‘समुद्र के साथ हमारा रिश्ता पीढ़ियों का है। हमारे पूर्वजों के समय से यह समुन्द्र हमें रोटी दे रहा है। सरकार परमाणु ऊर्जा प्रकल्प को कांेकण और महाराष्ट्र का विकास कहकर प्रचारित कर रही है। लेकिन यह विकास का नहीं कांेकण की बर्बादी का समझौता है।’ बोरकर के अनुसार महाराष्ट्र की सरकार प्रकल्प के नाम पर गंदी राजनीति कर रही है। वे बताते हैं कि किस तरह कोई डॉ. जयेन्द्र पुरुलेकर एक मराठी चैनल पर आकर और खुद को जैतापुरवाला बताकर परियोजना के पक्ष में बोलता रहा, जबकि उसका जैतापुर से कोई ताल्लुक नहीं है। बोरकर कहते हैं, ‘हम साखरी नाटे में रहने वाले लोगों ने मिलकर पुरलेकर के झूठ के खिलाफ उसका पुतला जलाया।’टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साईंस (टिस) की एक रिपोट के अनुसार परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के लिए सरकार ने जो स्थान तय किया है। वह बिल्कुल उपयुक्त नहीं है। 'टिस' की यह रिपोर्ट महेश कांबले ने इस इलाके के 120 गांवों में जाकर लोगों से मिलकर तैयार की है। कांबले के अनुसार इस परियोजना का स्थानीय और पर्यावरणीय परिवेश पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकार तथ्य को तोड़ मरोड़ रही है। और मड़वन के उपजाऊ जमीन को बंजर बनाकर कर पेश कर रही है। जैतापुर के जिस 626.52 हेक्टेयर जमीन को अन उपजाऊ बताकर दिखाया जा रहा है। वहां के किसान उस जमीन पर धान, फल, सब्जी लगा रहे हैं। वर्ष 2007 में बाढ़ में सरकार ने राजापुर के किसानों को आम की फसल खराब होने पर एक करोड़ सैंतिस लाख सात हजार रुपए का मुआवजा दिया था।
अर्थक्वेक हजार्ड जोनिंग ऑफ इंडिया के अनुसार जैतापुर जोन तीन में आता है। जो भूकम्प के लिहाज से रिस्क जोन माना जाएगा। ऐसे इलाके में परमाणु से जुड़े किसी प्रकल्प को शुरु करना कम खतरे की बात नहीं है। स्थानीय लोगों के लिए रेडिएशन का मामला भी एक बड़ा मुद्दा है। परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के आस पास जो लोग होंगे, उनके स्वास्थ पर इसका दुष्प्रभाव एक बड़ी चिन्ता बना हुआ है। गांव वाले पूछते हैं, यदि यह प्रकल्प इतना सुरक्षित है तो यहां काम करने वाले अधिकारियों के लिए आवास की व्यवस्था प्रकल्प से पांच-सात किलोमीटर दूर क्यों प्रस्तावित है? उनके रहने के लिए आवास परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के परिसर में क्यों नहीं किया जा रहा?माड़वन (जैतापुर) में रहने वाले जानना चाहते हैं, यदि फ्रांसिसि कंपनी अरेवा उनके गांव आ रही तो यहां वह कोई समाज सेवा करने तो नहीं आ रही है। वह एक निजी कंपनी है, जो यहां कमाई के इरादे से आएगी और कांेकणा की जमीन पर पहली बार वह अपने ईपीआर तकनीक की जांच भी कर पाएगी। जिसे पहले कहीं जांचा-परखा नहीं गया है। क्या अरेवा भारत को परमाणु ऊर्जा प्रकल्प के नाम पर अपनी प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है?